Tuesday, 6 December 2011

वो मेरी बांह का


वो मेरी  बांह का तकिया बना  कर |
अचानक सो गया पहलू में आ कर ||

चलो  दीदार  का  मौक़ा    है  अच्छा |
मेरे  आँगन  में  बैठा  चाँद  आ  कर ||

सितारों  ने  शिकायत  की  ज़मीं  से |
हमारा  चाँद  क्यूं  रक्खा  छुपा  कर ||

ज़रा सा प्यार था शबनम से अपना |
उसे  भी  ले  गया  सूरज   उड़ा  कर ||

हमारी  है कहाँ जुरअत  जो  उनकी |
वफ़ा  को  देख  लेते   आज़मा  कर ||

बड़ा    बदख़ू     हमारा    है    पडौसी |
कभी हँसता नहीं है खिलखिला  कर ||

अना पर  जब   कभी भी आँच  आई |
मैं अक्सर रह गया हूँ कसमसा कर ||

तरददुद   में   हमेशा    ही   रहा  हूँ |
क्यूँ बेचे ज़हर चींजों में मिला कर ||

ज़मानत आज शायद मिल  गयी है |
मिला है आज क़ातिल मुस्कुरा कर ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी   

No comments:

Post a Comment